युद्ध के मैदान में अर्जुन युद्ध करने के पक्ष में बिल्कुल नहीं था। वह श्री कृष्ण से यहीं बार बार कह रहे थे ये सब मेरे कोइ ना कोइ रिश्ते में लगते हैं। मै कैसे इनके साथ युद्ध करू युद्ध में यदि अर्जुन द्वारा वीरगति को प्राप्त हुए तो मेरे हाथो से ये अनर्थ कैसे होने दू। इस तरह श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच के संवाद हो रहे हैं।

न च शकनो मयवस्थतुम ब्रह्मतिव च मे मन:।
नीमितानी च पश्यमी विपरीतानि केशव।।
इस भगवदगीता के श्लोक में अर्जुन स्वयं को असहाय सा महसूस कर रहा है। क्युकी अर्जुन को भौतिक वस्तुओं से आसक्ति के कारण अर्जुन की ये स्थिति हो रहीं थीं।
अर्जुन युद्धभूमि में खड़े होकर खुदको युद्ध करने के लिए तैयार नहीं कर पा रहे थे। रह रह कर अर्जुन को यही विचार आ रहे थे यदि युद्ध में जीत हासिल कर ली तो भी यह हार है उसकी।
जीवन की सबसे बड़ी पराजय साबित होगी उसके जीवन की। युद्ध में खड़े सारे महारथी उसके अपने ही थे ।
अर्जुन के दिल में यही एक बात चुभे जा रहीं थीं कि इनकी हत्या युद्ध में करना भी उसके लिऐ महापाप होगा। ऐसी जीत हासिल करने की उसकी तनिक भी इच्छा शेष नहीं है अब उसकी।
कृष्ण और भक्त
अर्जुन को भौतिक वस्तुओं से आसक्ति के कारण युद्ध करना जो उस वक्त उसका कर्म था । वह कर्म से दूर भाग रहा था वह ये तय नहीं कर पा रहा था कि अपने कर्म करे या कर्म के नाम पर युद्ध करें।
इस कलयुग में मनुष्य को ऐसे ही परिस्थिति से गुजरना पड़ रहा है। मनुष्य में स्वार्थ भावना अधिक जागृत हो चुकी हैं।
हर कोइ अपनी इच्छा के प्रति जरूरत से ज्यादा आसक्त है। इच्छा मनोकामना पूर्ण करने में ही संलग्न हैं। सांसारिक मोह में हर प्राणी फसा हुआ है।
ईश्वर की पूजा आराधना मानो अभी श्लेष मात्र रह गई है। ईश्वर भक्ति मनुष्य के हृदय से गायब हो रहीं हैं सांसारिक मोह के कारण।
श्री कृष्ण ही सर्वत्र हैं कृष्ण पर ही आस्था से हम इस माया रूपी संसार से तर पाएंगे। ये भावना सुप्त अवस्था में जा रहीं हैं। कृष्ण भक्ति से मनुष्य का उद्धार है।
ये संपूर्ण संसार के रचयिता भगवन श्री कृष्ण ही है। जिन्होंने ये संसार को रचा उनको सच्चे मन से आत्म समर्पण का भाव रखें तो वह हमें संसार के सारे दुखों से छुटकारा दिलवा सकते है

कृष्ण भक्ति
ईश्वर भक्ति भी एक कार्य के समान रह गई है। सद्भावना ईश्वर के प्रति आसक्ति नाममात्र केवल कोइ कार्य संपूर्ण और सफल हो उसके लिए ईश्वर का ध्यान किया जाता हैं।
नित्य प्रतिदिन ईश्वर भक्ति के लिए समय की कमी का बहाना बना दिया जाता हैं। ईश्वर भक्ति को रुपए पैसों से तोला जा रहा हैं।
जिनके पास धन दौलत अधिक है वे उतना अधिक दान दे तो ऐसे लोग ईश्वर के सच्चे भक्त कहे जाते हैं। जबकि श्री कृष्ण भगवान को दान धन दौलत से कोई सरोकार नही उन्हें तो उनके सच्चे मन से भक्ति करने वाले भक्त की तलाश हैं।
लालची भक्त भी नहीं पसंद करते भगवान श्री कृष्ण जो कहे मेरा ये फला फला काम कर दे तो इतने का प्रसाद चढ़ाऊंगा मंदिर की सीढ़ियां बनवा दुंगा या इतने दिनों तक व्रत करूंगा।
श्री कृष्ण सिर्फ भक्त की सच्चे दिल से भक्ति चाहते और कुछ नहीं। जो किसी भी लालच के उन्हें मनन चिंतन करे। इस कलयुग में हर जगह व्यापार ही है। ईश्वर के साथ भी सौदा होना शुरू हो गया।
श्री कृष्ण उन भक्तों की खुद रक्षा करते जिनके मन में निरंतर आत्मचिंतन चलता रहता। भक्तों पर कोइ भी मुसीबत आने नही देते। मुसीबत आने से पहले ही टल जाती हैं।
यदि कर्मो का हिसाब चुकता करना ही हैं तो श्री कृष्ण खुद उस सच्चे भक्त को सहारा देते हैं ताकि वह आसानी से उस बुरे समय से सुरक्षित निकल जाए और उसके कर्मो का हिसाब भी पुरा हो जाए। इस कलयुग में मनुष्य ये सब भूल चुके हैं।
श्री कृष्ण ही सब कुछ है और संसार एक माया है। संसारिक मोह एक चक्रव्यूह के समान है जिसमे जीवात्मा बुरी तरह फसी है, उसमे से निकलने की भी चाहत नहीं हैं। फसकर रहने में ही आनंदित हुए जा रही है।
श्री कृष्ण की धर्म निति
श्री कृष्ण स्वयं धर्म है वे खुद कुदरत के नियम विरुद्ध कभी नहीं जाते। वे हमेशा धर्म की राह पर चलते हैं । चाहे उनका कोई कितना भी प्रिय क्यों न हों यदि वह अधर्म की राह पर है वे कभी उसके पक्ष में नहीं होंगे।
भगवान श्री कृष्ण ने ही उत्सव मनाने की शुरुआत की जिसके पीछे श्री कृष्ण यही उद्देश्य था कि उत्सव से लोगों में मेलजोल बढ़ने से हर्षोल्लास का माहौल हो सके और लोगों में आपस मे प्रेम और एकजुटता आ सके।
उत्सव मनाने से लोगों में नकारात्मकता, उदासीनता, एकाकीपन, समाप्त हो कर सकारात्मकता उत्साह बढ़ाते हैं। उत्सव में मनोरंजन और उधम के बहाने ढूंढे जाते है जिससे मनुष्य अपनेआपको निरोगी और स्वस्थ महसूस कर सके यही श्री कृष्ण का मकसद था उत्सव की शुरुआत करने की।
जब श्री कृष्ण ने भगवदगीता सुनाई अधिकतर लोग यही समझते है कि केवल अर्जुन ने ही सुनी बल्कि अर्जुन के अलावा हनुमानजी और संजय ने भी सुनी। क्योंकि हनुमानजी कुरुक्षेत्र की लड़ाई के दौरान अर्जुन के रथ के शीर्ष पर आसीन थे और ऋषि वेदव्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि ज्ञान का आशीर्वाद दे रखा था ताकि वह धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखो देखा हाल सुना सके।
conclusions
अर्जुन जिस तरह युद्ध के मैदान में खड़ा असमंजस की स्थिति से गुजर रहे थे उसी तरह आज का मानव खुद के ही कर्मो के बोझ तले दबा हुआ हैं। आज के इन्सान ने खुद के लिए ही सख्ती का माहोल बना रखा है खुद के ही मकड़जाल में फसता जा रहा है रोज।
खुद के ही जेल में कैदी बना मानव भी असमंजस की स्थिति में भटक कर रह गया है। अब इस पार जाए या उस पार उसे ही नहीं पता चल रहा है।
जय श्री कृष्ण 🙏🙏🙏🙏